पहले भी राजसी जीवन त्याग कर
संन्यास लिया कई संतों ने
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Yugvarta
, Jan 21, 2025 08:50 AM 0 Comments
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Lucknow : इन दिनों लाखों रुपए पानेवाले एक आईआईटी इंजीनियर के साधु बनने की खबरें वायरल हैं। यह कोई बड़ी बात नहीं है इससे पहले भी ऐसा होता रहा है। हर युग में लोग राजपाट छोड़कर भी साधु बने हैं।
बहुत समय पहले, 1981 में, पुराने समय की सबसे विख्यात पत्रिका माया, मनोहर कहानियां, सत्य कथा, मनोरमा और प्रोब इंडिया के प्रकाशक, मित्र प्रकाशन इलाहाबाद के स्वामी आलोक मित्र ने मुझे फोन पर आदेश दिया, "अशोक, हरिद्वार जाकर आध्यात्म पर, मेरे गुरु स्वामी मृत्युंजय का इंटरव्यू करो। वह नील धारा के पास बहुत बड़े क्षेत्र में, अपने आश्रम में मिलेंगे। आश्रम की
राज परिवार के न्यूक्लियर फिजिक्स में जापान से डीएससी डिग्री प्राप्त स्वामी मृत्युंजय देवानंद, जिन्होंने राजसी जीवन छोड़कर 1975 में ही संन्यास ग्रहण कर लिया था।
पहचान यह है कि आश्रम की छतों पर, कांच की लाल, नीली, पीली, सफेद और हरी बोतलों में गंगा जल भरा हुआ दिखेगा।
मैं उन दिनों इस प्रकाशन के दिल्ली ब्यूरो में विभागीय लेखक/सहायक संपादक हुआ करता था। मैं हरिद्वार गया और जाकर स्वामी जी का इंटरव्यू किया। इससे पहले कुछ समय पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की गुरु मां आनंदमई का साक्षात्कार लेने का मुझे सौभाग्य मिला था और उसके बाद उनकी अंत्येष्टि में भी मैं सम्मिलित हुआ था। मां आनंद में की अंत्येष्टि के अवसर पर लिखा गया मेरा आलेख माया में प्रकाशित हुआ था।
जब मैं हरिद्वार पहुंचने वाला था तब अचानक कुछ समय पहले ही मुझे अपनी गाड़ी में बैठे हुए ऐसा प्रतीत हुआ जैसे मुझे कोई बात कर रहा है। बहुत से ऐसे अवसर होते हैं जब हमें ऐसा लगता है कि हमारा मन ही हमसे कुछ कह रहा है। आप सोचिएगा तो आपको लगेगा कि कई बार आपके साथ भी ऐसा हुआ होगा कि आपको लगेगा जैसे आप कुछ अलग हैं और जो अंदर बोल रहा है वह कोई अलग व्यक्ति है। हम लोग इसे अंतरात्मा कह दिया करते हैं परंतु अनेक बार यह अनुभव भिन्न भी हो सकता है। उस बार मुझे भी हुआ।
मेरा ड्राइवर रामचंद्र नामक एक कम पढ़ा लिखा व्यक्ति था। उसे हरिद्वार की अच्छी खासी जानकारी थी इसलिए उसने कहा कि हम हर की पैड़ी से कुछ दूर हरिद्वार कोतवाली से पहले पढ़ने वाले चौराहे से दाएं और मुड़ेंगे और तब हम नील धारा की ओर चले जाएंगे। इसी समय मुझे ऐसा आभास हुआ कि जैसे कोई मुझसे बातचीत कर रहा है। वह कह रहा था कि आप लोग नील धारा की तरफ मत आइए। आप कनखल जाइए और कनखल की ओर से नीलाधारा की तरफ बाईं ओर आइए।
मैं इस आवाज को अपना भ्रम मानकर रामचंद्र को अपना काम करने दिया। मगर हमें नील धारा के पार गंगा किनारे स्वामी मृत्युंजय देवानंद का कोई आश्रम नहीं मिला। कुछ लोगों ने हमें बताया कि आप लोग गलत आ गए हैं। उनका आश्रम चंडी देवी मंदिर के पास नहीं है बल्कि कनखल की ओर नील धारा की दिशा में गंगा जी के उस तट पर है जो हरिद्वार की ओर लगता है।
इसके बाद हमें वापस जाना पड़ा और वापसी की यात्रा में सड़क के किनारे खपरैल की आठ झोपड़ियों तथा एक आयताकार पक्के कमरे वाला आश्रम मिला। जिसकी छत पर कांच का एक बड़ा सा रिफ्लेक्टर लगा हुआ था और उसे रिफ्लेक्टर के सामने बहुत सी रंग बिरंगी बोतल लटकी हुई थीं। रिफ्लेक्टर का आधार इस तरह से बना था कि वह हवा के प्रभाव से चारों ओर घूमता रहता था और उसका प्रकाश जब तक सूर्य रहता था उन बोतलों पर निरंतर पड़ता रहता था। साक्षात्कार में ही मुझे पता चला कि स्वामी जी सूर्य के प्रकाश से एक्टिवेटेड वाटर की मदद से लोगों के विभिन्न रोगों का इलाज निशुल्क किया करते थे और उन्हें दवा के बदले गंगाजल देते थे। इस चिकित्सा पद्धति को वह हाइड्रोक्रोमेथेरेपी कहते थे। संक्षेप में कहें तो सूर्य के प्रकाश से पानी के गुणधर्म बदलकर वह उससे गंगाजल औषधि बनाया करते थे।
यदि आप लोगों को यह जानकारी पसंद आई होगी तो अपनी टिप्पणियों में बताइएगा तब मैं इस अनूठे साक्षात्कार का पूरा पृष्ठ शेयर करूंगा और इस अनोखे व्यक्तित्व के बारे में बताऊंगा जो बिहार के एक राज परिवार से था। अपने परिवार को छोड़कर जिसने सन्यास ग्रहण किया था और कई सिद्धियों का स्वामी था।