Mahakumbh 2025 : आस्था, ज्ञान और सनातन संस्कृति का महासंगम
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Yugvarta
, Jan 13, 2025 10:30 AM 0 Comments
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Mahakumbh Nagar :
13 जनवरी, महाकुंभ नगर : हमारे वेद-पुराण समुद्र हैं और ज्ञान मंदराचल पर्वत हैं। कुर्म (कच्छप) सतत कर्म का बल है। वासुकी अर्थात विवेक रूपी रस्सी हमारे शरीर का मेरुदंड है, जहाँ प्राण-अपान वासुकी सर्प रूपी रस्सी है जिसमें धार्मिक और यौगिक कुण्डलिनी शक्ति है। समाज के संत, सज्जन देवता हैं और हमारी दुष्प्रवृति, कुप्रवत्ति ही दैत्य हैं। इस अर्थ में ये संसार समुद्र है। दैवीय और आसुरी वृत्तियों को विवेक रूपी रस्सी ज्ञान रूपी मदराचल का सहयोग लेकर अपने अन्तःकरण रूपी सागर से सत्संग का, चैतन्यता का अमृत खोजने का नाम कुंभ-महापर्व है।
समुद्र मंथन यानी वेदों से ज्ञान पाने की दिशा के प्रयास में प्रारम्भ में विष ही मिलता है। कारण! हल्की चीजें ऊपर ही मिलती हैं। जैसे श्रावण की पहली बूंदें जब जेठ-आषाढ़ से तपी हुई भूमि पर पड़ती हैं तो पहली वर्षा की बूंदों से, बिच्छू, कीट व सर्प और अनेक विषधर ही बाहर आते हैं। इसके बाद और वर्षा का जल पाकर खरपतवार (अर्थात सामान्य ज्ञान रूपी खरपतवार) बाहर आती है। इस सतसंग से नम हुई भूमि पर लगातार हल चलाया जाय तब अमृत रूपी जीवनदायिनी फसल सबसे अंत में आती है।
हां! जब विष मिले तो किसी गुरु का आश्रय लेना ही चाहिये। जब देवताओं को विष से विषाद हुआ तब शिव के पास जाना पड़ा, तब किसी शिव को ढूंढना ही पड़ता है। गुरु हों या त्रिभुवन गुरु उनमें ही सामर्थ्य है विष को दूर करने की। देवताओं की तरह ही त्रिभुवनगुरु शिव जैसे किसी गुरु की करुणा से ही विष आपसे दूर होगा और अमृत रूपी ज्ञान की प्राप्ति संभव होगी। तो कुंभ का महात्म्य संत-संगति है।
कुंभ, 12 वर्ष मंथन व तप से प्राप्त ज्ञान को देश ही नहीं दुनिया के - लोगों में बांटने का माध्यम भी है। 3 वर्ष, 6 वर्ष, 12 वर्षों तक सिद्ध, संत, साधक, गुरुजन, विद्वत वर्ग कठोर तप से अध्ययन, चिंतन, मनन, स्वाध्याय, अनुसंधान कर जो ज्ञान प्राप्त करते थे, उसे मुक्त हस्त से कुंभ जैसे समागम में आकर व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और पूरे विश्व के हित-कल्याण के लिये वितरित करते थे/हैं। इस अर्थ में ज्ञान की पिपासा को शांत करने का माध्यम भी कुंभ महापर्व है।
कुंभ में अनेक अखाड़ों के साथ साथ भिन्न-भिन्न मत, सम्प्रदायों के लोग हों या साकारवादी, निराकारवादी हों, शैव-शाक्त हों या वैष्णव, कौलाचारी हों या सौर-गाणपत्य, सबका संगम कुंभ में होता है यहां तक कि हर धर्म व वर्ग, जाति-वर्ण के लोग साथ आकर पवित्र नदियों में डुबकी लगाते हैं और सामाजिक समरसता का संदेश देते हुए सामान्य मनुष्यत्व से देवत्व को स्पर्श कर लेते हैं। तो भेदभाव मिटाने की भूमि भी है कुंभ।
कुंभ शब्द में ही एक विशेष प्रकार की सम्मोहकता है, इतना सम्मोहन है की हिंदू धर्म के अनुयायी अपने प्रत्येक शुभ कार्यों, मांगलिक तीज-त्योहारों, उत्सवों में प्रवेश करने से पहले सर्वप्रथम कुंभ-स्थापन (घट-स्थापन) ही करते हैं। बड़ा ही अद्भुत शब्द है "कुंभ", वैदिक-पौराणिक काल से लेकर आज तक कुंभ की बड़ी महिमा रही है। कुंभ स्थापन का अर्थ है, किसी भी सत्कर्म में प्रवेश करने से पहले अपना हृदय स्थापित कर देना वरना सत्कर्म भी प्रपंच बन जाता है। गुरु हों या त्रिभुवन गुरु शिव, ये चाहते हैं कि तुम्हारा घट सुंदर बने। घट सुंदर बने, इसके लिये तुम्हें मिट्टी बनना पड़ेगा। विशिष्ट होने के भाव से निकलकर सामान्य बनना पड़ेगा। जाति, कुल, वर्ण, धन, पद के अभिमान से मुक्त होकर सरल बनना पड़ेगा, स्वर्ण-रजत चूर्ण नहीं मिट्टी बनना पड़ेगा। किसी सद्गुरु के चरणों की धूल बनना ही पड़ेगा। मिट्टी जैसे बन गये तो ही अमृत धारण कर सकने योग्य सुंदर कुंभ का निर्माण होगा।
कुंभ-महापर्व का निर्णय करते समय ग्रहों की खगोलीय स्थिति का महत्वपूर्ण स्थान है। कुंभ में ज्योतिष विज्ञान है, खगोल विज्ञान है और आध्यात्मिक विज्ञान भी है। सब न लेकर बस इतना संकेत पर्याय है कि कुंभ में देवगुरु बृहस्पति, सूर्य, चन्द्र और शनि का विशेष सम्बन्ध है जो तात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। बृहस्पति हैं गुरु, सूर्य हैं प्रकाश (आत्मज्योति का प्रकाश), चन्द्रमा है मन और शनि हैं मनुष्य का संकल्प बल (वो भी ऐसा संकल्प जो खण्डित रहता है)। ये चारों जब संयोग से एक हो जाते हैं, सुमुख हो जाते हैं, सन्मुख हो जाते हैं तो ही अमृत की प्राप्ति होती है। तो हमें अपने मन के साथ गुरु के सन्मुख होना है ताकि आत्मज्योति का प्रकाश हमारे अन्तस् के अंधकार को मिटा दे। यही कुंभ-महापर्व का महाउत्सव है।
कुंभ की ऐतिहासिकता सर्वविदित है ही। उससे हटकर थोड़ा मंथन कर विचार करें और समझें कि विदेशी आक्रांताओं, इनवेडर्स, लुटेरों के
सैकड़ों आक्रमण झेलने के बाद भी सनातन धर्म के न मिटने का कारण क्या है! जबकि सनातन धर्म के सापेक्ष विश्वभर की अनेक सभ्यताओं के नामोनिशान मिट गये। थोड़ा मंथन करते हैं तो को सनातन हिंदू धर्म के आज तक अक्षुण्ण रहने का बड़ा कारण हमारी परिवार व्यवस्था का बल है। संसार की तरह परिवार भी समुद्र ही है। परिवार रूपी समुद्र को धैर्य की मथनी का आश्रय लेकर निरंतर कर्म की पीठ पर रखकर प्रेम की डोर से मथा जाय तो परिवार में अमृत बना रहता है, साथ में विष दूर करने वाला गुरु हो तो दुर्भाग्य रूपी विष भी निर्मूल हो जाते हैं। सनातन का बल ही परिवार है। यद्यपि वर्तमान का विद्रूप है कि परिवार व्यवस्था संयुक्त परिवार से दूर होते-होते एकल परिवारों तक आ गई है।
इस बार के कुंभ में ये मंथन हो कि कैसे भी सनातन धर्म में सन्निहित संयुक्त परिवार की अवधारणा पुनः स्थापित हो, अब इस कुंभ-महापर्व के जरिए पुनः एकजुट होने व अपने माता-पिता, बंधु-बांधवों के साथ संयुक्त परिवार में मिलकर रहने का भाव पुष्ट हो।
व्यक्तिगत परिवार की तरह ही भारत राष्ट्र भी एक परिवार है, जहाँ धर्म-मत-समप्रदाय के रूप में अलग-अलग सोच, विचार के लोगों का जमावड़ा है। कुंभ ऐसा अकेला महापर्व है जो सबको जोड़ता है, तो इस विचार पर भी विचार हो कि सनातन की डाल से जो बिछुड़ गये हैं उन्हें पुनः सनातन के मार्ग पर लाया जा सके।
अंत में कुंभ-महापर्व लोकतंत्र का जनक भी है। बड़े-बड़े राजा-महाराजा कल्पवास करने कुंभ में आते थे, इस बहाने प्रजा का समुचित हाल-चाल, आर्थिकी, सामाजिक सौहार्द, स्वास्थ्य, ज्ञान-विज्ञान से वे परिचित होते थे। लगभग 600 ईसा पूर्व ह्वेनसांग ने राजाओं के कुंभ में आने का वर्णन अपने संस्मरणों में लिखा है, 644 से 664 ईसापूर्व राजा हर्षवर्धन के कुंभ में कल्पवास का ऐतिहासिक वृतांत प्राप्त होता है। इस प्रकार राजाओं का प्रजा के मध्य सामान्य रूप से रहना, तप करना, सत्संग करना, प्रजा का हाल-चाल जानकर हितवर्धन करना ही तो वास्तविक लोकतंत्र है। आशा है प्रयागराज कुंभ महापर्व में भारतीय लोकतंत्र पुनः सुदृढ़ता से स्थापित होगा।