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उत्तराखंड: PHOOL DEI PARV 2025 - धूमधाम से मनाया जा रहा है लोकपर्व फूलदेई, बच्चे देहलियों में फूल डालकर ले रहे आशीर्वाद
Go Back | Yugvarta , Mar 14, 2025 10:05 PM
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News Image Dehradun : 
देवभूमि उत्तराखंड में कई त्योहार मनाए जाते हैं, उन्हीं में से एक फूलदेई भी है. लोग इस पर्व का बेसब्री से इंतजार करते हैं. फूलदेई पर्व बच्चों के द्वारा मनाया जाता है. हिंदू महीने चैत्र के पहले दिन फूलदेई लोकपर्व मनाया जाता है. पर्व को लेकर बच्चों में आज खासा उत्साह देखने को मिला. बच्चे सुबह से ही टोकरियों में फूल भरकर लोगों की देहलियों में डाल रहे हैं. लोग बच्चों को गुड़, मिठाई, अनाज और रुपए दे रहे हैं. साथी ही आशीर्वाद की बारिश कर रहे हैं.

चैत्र माह के पहले दिन मनाया जाता है पर्व: उत्तराखंड की खूबसूरत वादियों में इन दिनों प्रकृति प्रेम और संस्कृति की खुशबू से भरा लोकपर्व "फूलदेई" धूमधाम से मनाया जा रहा है. उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में बसंत ऋतु के आगमन का प्रतीक लोकपर्व फूलदेई हर साल चैत्र माह के पहले दिन पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. कुमाऊं में इसे फूलदेई और गढ़वाल में फूल संक्रांति के नाम से जाना जाता है. यह पर्व खासकर बच्चों के लिए बेहद उत्साहजनक होता है. जहां वे घर-घर जाकर फूल चढ़ाते हैं और मंगल कामना करते हैं.

इस शुभ अवसर पर देवभूमि के लोग प्राचीन समय से ही अपने ईष्ट देवी-देवताओं, मंदिरों में जाकर पूजा अर्चना करते आए हैं. यहां लगभग हर संक्रांति को एक लोकपर्व के रूप में मनाया जाता है. बात मार्च माह की करें तो हिन्दू पंचांग के मुताबिक 14 या 15 मार्च से चैत्र मास की शुरुआत होती है, जिसकी संक्रांति को उत्तराखंड में फूलदेई पर्व के रूप में मनाया जाता है.

इस दिन भगवान सूर्य कुंभ राशि को छोड़कर मीन राशि में प्रवेश करते हैं. बात 2025 की करें तो इस वर्ष यह त्यौहार 14 मार्च को मनाया जाएगा. इस दिन छोटी-छोटी बच्चियां घरों की देहली का पूजन फूलों से करती है. इस त्योहार को कुमाऊनी लोग “फूलदेही” जबकि गढ़वाली लोग “फुल संक्रांति” कहते हैं तथा फूल खेलने वाले बच्चो को फुलारी कहा जाता हैं.

बसंत ऋतु की स्वागत पर मनाई जाता है फूलदेही, प्रकृति का आभार व्यक्त करने का है प्रतीक:-
बता दें कि फरवरी माह में पतझड़ होने बाद मार्च माह में वृक्षों में नए नए पत्ते उगने लगते हैं, धरा नए नए फूलों से शोभायमान हो जाती है. इसी माह से न केवल गर्मी की हल्की सी शुरुआत होती है बल्कि बसंत ऋतु के आगमन से धरा हरियाली से आच्छादित हो जाती है. इस वक्त उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में अनेक प्रकार के रंग बिरंगे फूल उगते हैं, जिनमें प्योली, पुलम,आडू, बुरांश आदि पुष्पों की छटा बिखरती रहती है, जो पहाड़ की हसीन वादियों की शोभा को ओर भी अधिक बढ़ाने का काम करती है. इन्हीं रंग बिरंगे फूलों को छोटी छोटी कन्याएं पेड़ो तथा जंगलों से तोड़कर लाते हैं और अपनी टोकरी में रखकर पूरे गांव में घूम घूम कर गांव की हर देहली (दरवाजे) पर जाते है और उन फूलों और अक्षत आदि से देहली का पूजन करते हैं, साथ में एक सुंदर सा लोकगीत भी गाते हैं, जिसमें घर के सदस्यों के प्रति शुभकामना संदेश होते हैं. कन्याएं जहां अनेक मंगलकामनाओं के साथ घर की देहली का पूजन करती है वहीं घर के वरिष्ठ सदस्य शगुन के तौर पर उन्हें भेंट देते है. कुल मिलाकर उत्तराखण्ड का यह त्यौहार बसंत ऋतु के स्वागत एवं प्रकृति का आभार व्यक्त करने के लिए मनाया जाता हैं.

इस खूबसूरत त्यौहार का आगाज कबसे हुआ, इसके बारे में तो कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिल पाती है. परंतु इसकी उत्पत्ति के बारे में पहाड़ों में अनेक लोककथाएं प्रचलित है. जिनके मुताबिक सदियों पहले जब पहाड़ों में घोघाजीत नामक राजा का शासन था. उसकी घोघा नाम की एक पुत्री थी. कहा जाता है कि घोघा (Ghogha) प्रकृति प्रेमी थी. परंतु एक दिन छोटी उम्र में ही घोघा कहीं लापता हो गई. जिसके बाद से राजा घोघाजीत काफी उदास रहने लगे. तभी कुलदेवी ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि राजा गांवभर के बच्चों को वसंत चैत्र की अष्टमी पर बुलाएं और बच्चों से फ्योंली और बुरांस देहरी पर रखवाएं. जिससे घर में खुशहाली आएगी . कहा जाता है कि राजा ने ऐसा ही किया. जिसके बाद से ही पूरे राज्य में फूलदेई मनाया जाने लगा.

एक अन्य लोक कथा के मुताबिक फ्योंली नामक एक वनकन्या थी. जो जंगल मे रहती थी. जंगल के सभी लोग उसके दोस्त थे. उसकी वजह से जंगल मे हरियाली और समृद्धि थी. एक दिन एक देश का राजकुमार उस जंगल में आता है और उसे फ्योंली से प्रेम हो गया. वह उससे शादी करके उसे अपने देश ले गया. कहा जाता है कि इस दिन के बाद जहां पेड़ पौधें मुरझाने लगे, जंगली जानवर उदास रहने लगे वहीं फ्योंली को अपने ससुराल में मायके और अपने जंगल के मित्रों की याद आने लगी. परंतु सास उसे मायके जाने नहीं देती थी. बार बार प्रार्थना करने बाद भी जब ससुराल वालों का दिल नहीं पसीजा तो एक दिन मायके की याद में तड़पकर फ्योंली मर जाती है. ससुराल वालों द्वारा उसे जिस जगह पर दफनाया जाता है वहां कुछ समय बाद पीले रंग का एक सुंदर फूल खिलता है जिसे फ्योंली के नाम से ही जाना जाता है. फूलदेई पर इसी फूल का सर्वाधिक प्रयोग किया जाता है.

घरों की देहली का पूजन करने वाली कन्याएं इस दौरान एक गीत भी गुनगुनाती है.
फूल देई…..छम्मा देई
देणी द्वार….भर भकार…
इस गीत का शाब्दिक अर्थ इस प्रकार है:-
फूल देई – देहरी फूलों से भरपूर और मंगलकारी हो.
छम्मा देई – देहरी, क्षमाशील अर्थात सबकी रक्षा करे.
दैणी द्वार – देहरी, घर व समय सबके लिए दांया अर्थात सफल हो.
भरि भकार – सबके घरों में अन्न का पूर्ण भंडार हो.

प्रकृति के प्रति आभार एवं लोगों की मंगल की कामनाएं करने वाला यह पर्व आठ दिनों तक मनाया जाता है. इस दौरान चावल और गुड़ से बच्चों के लिए अनेक पकवान बनाए जाते है. यह लोकपर्व इस ओर भी इशारा करता है कि प्रकृति के बिना इंसान कुछ भी नहीं है. आपको बता दें कि चैत्र माह की संक्रांति से ही पहाड़ में भिटौली पर्व की भी शुरुआत हो जाती है. पूरे माह चलने वाले इस पर्व के दौरान लड़की के मायके वाले अपनी बेटी को उपहार देने उसके ससुराल जाते हैं, जिसका बेटियां बेसब्री से इंतजार करती है.
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