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बौद्ध कलाशैली में कथाकथन के रूप – शिलालेखों में बौद्ध कथाएं
Go Back | Yugvarta , Mar 27, 2023 08:31 PM
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भारत में शैल प्रतिमाओं एवं शैल कलाकृतियों का आरम्भ लगभग २२०० वर्षों पूर्व, बौद्ध कला कथाकथन से हुआ था। इन कथाओं को हम जातक कथाओं के नाम से जानते हैं। इससे पूर्व भी यह कथाकथन की कलाशैली अस्तित्व में रही होगी किन्तु काष्ठ जैसे नश्वर या नाशवान माध्यमों पर की गयी होगी जो समय की मार झेल नहीं पायी तथा अब अस्तित्वहीन हो गयी।


प्रारंभिक शैल प्रतिमाएं एवं शैल कलाकृतियाँ मध्यप्रदेश में जबलपुर के निकट भरहुत क्षेत्र एवं कर्णाटक में गुलबर्गा के समीप सन्नति-कनगनहल्ली क्षेत्र में पाए गए थे। इसके पश्चात ही भारत उपमहाद्वीप में बिखरे अनेक क्षेत्रों में इनके चिन्ह प्राप्त हुए।

बौद्ध कलाशैली में कथाकथन
इस संस्करण में मैं शिलाओं पर बौद्ध कलाशैली में कथाकथन करने के लिए, उस काल के कलाकारों द्वारा अपनाए गए, ७ विभिन्न माध्यमों के विषय में चर्चा करुँगी। ये कथाएं मूलतः जातक कथाओं से आई हैं जिनमें बुद्ध के पूर्वजन्म की कथाएं कही गयी हैं। वैसे तो जातक कथाओं में लगभग ५५० से भी अधिक कथाएं हैं किन्तु अधिकतर कलाकार चित्रण के लिए सदा कुछ ही कथाओं का चयन करते आये हैं। वे उन्ही कथाओं को अपनी कलाकृतियों में प्रदर्शित करते रहे हैं।

बुद्ध के जीवन के दृश्य एवं उनकी जीवनी से सम्बंधित कथाएँ दूसरा सर्वाधिक सामान्य विषय होता था जिन्हें हम आज भी शैल कलाकृतियों में देख सकते हैं। इनके पश्चात उन दृश्यों का क्रमांक आता है जिसमें बुद्ध के पश्चात् जीवन का चित्रण किया गया है, जैसे महान सम्राटों द्वारा बौद्ध स्थलों के दर्शन एवं इन स्थलों को उभारने के लिए अनुदान प्रदान करने के दृष्य।


सभी कलाकृतियाँ स्तूप के चारों ओर होती हैं। स्तूप एक अर्धगोलाकार टीला होता है जिसके भीतर बुद्ध के अवशेषों की पेटी होती है। इसके चारों ओर प्रदक्षिणा पथ होता है। उसके बाहरी ओर कटघरा होता है जिस पर बहुधा आड़ी-सीधी पट्टियां होती हैं। कहीं कहीं स्तूप पर उत्कीर्णित शिलाखंड होते हैं तो कहीं सादे। स्तूपों की स्थापत्य शैली के विषय में अधिक चर्चा ना करते हुए मैं आरंभिक कालीन बौद्ध कथाकथन शैली के विषय में चर्चा करना चाहती हूँ।

एक-दृश्य कथाकथन – विषयवस्तु का प्रदर्शन
यह कथाकथन का सर्वाधिक सरल माध्यम है। कलाकार सम्पूर्ण कथा के सार को अथवा कथा की एक घटना के सार को विषयवस्तु के रूप में चुनते हैं तथा उसे शिलाखंड पर उत्कीर्णित करते हैं। सामान्यतः वे कभी कथा के आरम्भ अथवा अंत का चित्रण नहीं करते थे, अपितु वे कथा के सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग का चित्रण करते थे।


एक-दृश्य कथाकथन – बौद्ध कलाशैली
कला इतिहासकारों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि कलाकार यह मान कर चलते थे कि दर्शक कथा के विषयवस्तु से परिचित हैं। इसी कारण सम्पूर्ण कथा का चित्रण ना करते हुए वे केवल महत्वपूर्ण दृश्यों द्वारा ही उन्हें सम्पूर्ण कथा का स्मरण कराते थे।

जैसे, भरहुत में कलाकारों ने वेस्सन्तर जातक कथा को केवल एक दृश्य द्वारा दर्शाने का प्रयास किया है। वेस्सन्तर ने अपनी समृद्धि के प्रतीक, मनोकामना पूर्ण करने वाले हाथी को कलिंग के ब्राह्मणों को दान के रूप में दे दिया था। दान के पुण्य को उजागर करने वाला यह दृश्य वास्तव में वेस्सन्तर जातक कथा का सार है जिसमें वेस्सन्तर को कलिंग के ब्राह्मणों को हाथी का दान करते दर्शाया गया है।

एक-दृश्य कथाकथन – सारांश
कथा के एक-दृश्य प्रदर्शन के इस रूप में कथा का सार चित्रित किया जाता है। मेरी व्याख्या के अनुसार, कथा से जो शिक्षा अथवा सीख प्राप्त होती है, उसका चित्रण किया गया है। इस चित्रण की पृष्ठभूमि में पुनः यह मान लिया गया था कि दर्शकों को कथा अथवा उसकी विषयवस्तु के विषय में पूर्व जानकारी है।


एक दृश्य कथानक सारांश में
कथानक प्रदर्शन के इस रूप का प्रयोग बुद्ध की परम ज्ञान प्राप्ति के उपरांत की स्थिति को प्रदर्शित करने में किया जाता रहा है। अथवा महापरिनिर्वाण से पूर्व की स्थिति को दर्शाया जाता रहा है। इस कथा में वे परम व्यक्ति हैं। इस शैली का एक उत्तम उदाहरण आप भरहुत स्तम्भ पर देख सकते हैं। इस कथा में बुद्ध इंद्र एवं ब्रह्मा सहित स्वर्ण व रत्नों की सीढ़ियों से त्रयस्तृन्सा स्वर्ग से पृथ्वी पर संकिसा में अवतरित हुए थे। इस दृश्य को सीढ़ियों पर पदचिन्हों के रूप में उस स्तम्भ पर दर्शाया गया है।

अनुक्रमिक अथवा रैखिक कथाकथन
कथा की अनुक्रमिक घटनाओं अर्थात् एक के पश्चात एक आने वाली घटनाओं को अनुक्रमिक अथवा रैखिक रूप में दर्शाया जाता है। मुख्य पात्र या नायक प्रत्येक दृश्य का मुख्य भाग होता है। सभी दृश्य एक दूसरे से प्रत्यक्ष रूप से सीमांकित होते हैं। अर्थात् प्रत्येक दृश्य की पृथक सीमा इंगित होती है।


बौद्ध कलाशैली का अनुक्रमिक कथानक
इसका एक उदहारण है, नन्द जातक जिसका चित्रण नागार्जुनकोंडा में किया गया है। इस उत्कीर्णन में प्रत्येक दो दृश्यों के मध्य दो स्तंभ हैं जिनके मध्य प्रेमी युगल को दर्शाया गया है जो दोनों दृश्यों की सीमा तय करता है। इस प्रकार दृश्यों को सीमाबद्ध किया गया है।

इतिहासकार यह शोध करने का प्रयास कर रहे हैं कि कथा में आये इन दृश्यों के मध्य युगल जोड़े के दृश्य का क्या औचित्य रहा होगा। यह भी उतना ही सत्य है कि इस प्रकार की सीमाबद्ध कथाकथन शैली समझने में अत्यंत आसान होती है तथा हमारी आधुनिक संवेदनशीलता के लिए अत्यंत सहज शैली होती है।

अविरत कथाकथन
कथा के अनेक दृश्यों को एक ही चौखट के भीतर दर्शाया जाता है। इसमें भी मुख्य पात्र या नायक सभी दृश्यों में अनिवार्य रूप से होता है।


साँची स्तूप पर अविरत कथाकथन
सांची के स्तूप के तोरण खंड पर उत्कीर्णित कथा इसी शैली में है जिसमें बुद्ध महल त्याग कर प्रयाण कर रहे हैं। छत्र धारक अश्व, जिस पर सिद्धार्थ विराजमान है, उनका महल छोड़कर प्रयाण करना दर्शा रहा है। बिना सवार के अश्व का वापिस लौटने का दृश्य बुद्ध का वापिस ना आना दर्शाता है। यहाँ दृश्यों के मध्य सीमांकन नहीं हैं। दृश्यों की श्रंखला सीमाविहीन व अखंड है। अश्व की आकृति की पुनरावृत्ति द्वारा कथा की गति को दर्शाया गया है।

संक्षिप्त कथाकथन
यहाँ भी कथा के अनेक दृश्यों को एक ही चौखट के भीतर दर्शाया जाता है। किन्तु इसमें कथा के दृश्यों को क्रमवार रूप से नहीं दर्शाया जाता। इसमें भी मुख्य पात्र या नायक सभी दृश्यों में अनिवार्य रूप से होता है। एक चौकोर फलक के सीमित क्षेत्र में अनेक कथाओं को सम्मिलित किया जाता है। ये फलक किसी स्तम्भ का अथवा किसी बड़े पटल का भाग होते हैं।


संक्षिप्त कथाकथन बौद्ध कलाशैली में
इसका उदहारण है, सांची स्तूप के एक स्तम्भ पर बने एक फलक पर महाकपि जातक की कथा उत्कीर्णित है। इस चित्रण में कथानक स्पष्ट रूप से उत्कीर्णित नहीं है। यदि आप कथानक को भलीभांति जानते हैं तो आप उस दृश्य को समझ सकते हैं।

कला इतिहासकारों ने इन दृश्यों पर क्रमांक अंकित करने का प्रयास अवश्य किया है। किन्तु फिर भी यह स्पष्ट नहीं है कि कलाकारों ने कथाकथन की यह शैली क्यों चुनी। उन्होंने यह अवश्य माना होगा कि कथा सबको ज्ञात होगी। फिर भी वे कथा के क्रमवार घटनाओं के प्रति उदासीन क्यों थे? या जानबूझ कर उसकी उपेक्षा क्यों की?

सम्मिश्रित कथाकथन
यह शैली संक्षिप्त कथाकथन शैली के समान है। किन्तु इस शैली में मुख्य पात्र का एक ही शिल्प होता है जिसके चारों ओर कथानक के विभिन्न दृश्य दर्शाए जाते हैं। मुख्य पात्र का एक ही चित्रण होने के पश्चात भी वह सभी दृश्यों में समाहित होता है।


सम्मिश्रित कथाकथन
इसका एक उदहारण है, गांधार पटल पर दीपांकर जातक। इसमें बुद्ध की एक विशाल आकृति उत्कीर्णित है जिसके चारों ओर सुमेधा की कथा चित्रित है।

दृश्यों का संजाल – कथा का प्रसार
इस शैली में कथा विभिन्न दृश्यों के संजाल के रूप में प्रदर्शित की जाती है। सम्पूर्ण उपलब्ध स्थान पर कथा के विभिन्न दृश्य बिखरे हुए होते हैं जिनका आपस में कोई विशेष क्रम नहीं होता है। दर्शक को ही दृश्यों के क्रम को खोजते हुए कथानक को समझना पड़ता है।


भित्ति पर दृश्यों का जाल
जैसा कि प्रा. श्रीमती दहेजिया ने अपने व्याख्यान में समझाया था, कलाकार उपलब्ध स्थान का सबसे अच्छा उपयोग करते हुए स्थानिक कथाकथन कर रहा था, ना कि क्रमवार कथाकथन। इसका अर्थ है, एक स्थान पर जितनी भी घटनाएँ हुई, भले ही वे क्रमवार ना हों, उन्हें एक स्थान पर उत्कीर्णित किया गया। किसी दूसरे स्थान पर हुई सभी घटनाओं को दूसरे क्षेत्र में एकत्र प्रदर्शित किया गया। अतः आपको कथा के क्रमवार दृश्यों को ढूँढते हुए सम्पूर्ण क्षेत्र में घूमना पड़ता है।

अजंता के अधिकाँश चित्र इस जटिल शैली में दृश्यों का संजाल बनाते हुए कथा का प्रसार करते हैं। जैसे गुफा क्रमांक १७ के भीतर सिम्हला जातक कथा इसी शैली में चित्रित है। कथा के २९ दृश्यों को ४५ फीट चौड़ी एवं १३ फीट ऊँची भित्त पर जटिल रूप से चित्रित किया गया है। यह चित्र धरती से छत तक चित्रित किया गया है। हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि घुप्प अन्धकार भरी गुफा के भीतर इतनी विशाल व इतनी जटिल कलाकारी कैसे की गयी होगी।


मौखिक कथाकथन की परंपरा को शिलाखंडों पर दृश्य कथाकथन के रूप में उत्कीर्णित किया गया। तत्पश्चात लिखित कथाकथन की परम्परा का उद्भव हुआ। ये कथाकथन की यात्रा के महत्वपूर्ण मील के पत्थर हैं।

बौद्ध कला पर बनाया गया यह संस्करण ‘Visual Narratives in early Buddhist Art’ इस विषय पर आयोजित एक संगोष्ठी पर आधारित है जिसका आयोजन प्रा. श्रीमती विद्या दहेजिया ने किया था। उनके द्वारा किये गए शोधकार्य पर यह संस्करण लिखने से पूर्व मैंने उनसे रीतसर अनुमति ली थी। ७ चित्रों में से ६ चित्र मैंने गोवा विश्वविद्यालय द्वारा दी गयी सामग्री में से लिए हैं। इन चित्रों को अपने संस्करण में सम्मिलित करने का एकमात्र उद्देश्य यह है कि मैं विभिन्न बौद्ध कथाकथन कलाशैलियों को सम्बंधित चित्रों द्वारा स्पष्ट रूप से दर्शाना चाहती थी ताकि पाठक इन शैलियों को स्पष्ट रूप से समझ सकें।
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