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Yugvarta
, Jul 10, 2025 07:34 PM 0 Comments
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Delhi :
दिल्ली | शशि थरूर ने इमरजेंसी पर एक आर्टिकल लिखा है और इसमें आपातकाल की जमकर आलोचना की है. साल 1975 में इंदिरा गांधी के शासन में लगी इमरजेंसी को लेकर उन्होंने उस वक्त के हालात और अपने विचार सामने रखे हैं. उन्होंने अपने इस आर्टिकल में कहा कि आज का भारत 1975 वाला नहीं है.
कांग्रेस पार्टी के लिए इमरजेंसी एक पेचीदा और अहम मुद्दा रहा है, खासकर जब से 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार सत्ता में आई है और उसने 25 जून को, जिस दिन आपातकाल की घोषणा हुई थी, संविधान हत्या दिवस के रूप में मनाना शुरू किया है. इस साल भी बीजेपी ने 25 जून को संविधान हत्या दिवस के रूप में मनाया. वहीं, कांग्रेस ने बीजेपी के वार पर पलटवार करते हुए कहा कि बीजेपी ने देश में “अघोषित आपातकाल” लगा दिया है. इसी बीच अब थरूर के आर्टिकल ने सियासी पारा बढ़ा दिया है.
थरूर ने कहा, 25 जून, 1975 को भारत एक नई रियालिटी के साथ जागा. हवाएं सामान्य सरकारी घोषणाओं से नहीं, बल्कि एक भयावह आदेश से गूंज रही थीं. इमरजेंसी की घोषणा कर दी गई थी. 21 महीनों तक, मौलिक अधिकारों को सस्पेंड कर दिया गया, प्रेस पर लगाम लगा दी गई और राजनीतिक असहमति को बेरहमी से दबा दिया गया. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र ने अपनी सांस रोक ली. 50 साल बाद भी, वो काल भारतीयों की याद में “आपातकाल” के रूप में जिंदा है.
आर्टिकल में आगे कहा गया, पीएम इंदिरा गांधी को लगा था कि सिर्फ आपातकाल की स्थिति ही आंतरिक अव्यवस्था और बाहरी खतरों से निपट सकती है. अराजक देश में अनुशासन ला सकती है. जब इमरजेंसी का ऐलान हुआ, तब मैं भारत में था, हालांकि मैं जल्द ही ग्रेजुएशन की पढ़ाई के लिए अमेरिका चला गया और बाकी की सारी चीजें वहीं दूर से देखी. जब इमरजेंसी लगी तो मैं काफी बैचेन हो गया था. भारत के वो लोग जो ज़ोरदार बहस और स्वतंत्र अभिव्यक्ति के आदी थे, एक भयावह सन्नाटे में बदल गया था. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जोर देकर कहा कि ये कठोर कदम जरूरी थे.
थरूर ने कहा, न्यायपालिका इस कदम का समर्थन करने के लिए भारी दबाव में झुक गई, यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने बंदी प्रत्यक्षीकरण (habeas corpus) और नागरिकों के स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के निलंबन को भी बरकरार रखा. पत्रकारों, कार्यकर्ताओं और विपक्षी नेताओं को जेल की सलाखों के पीछे जाना पड़ा. व्यापक संवैधानिक उल्लंघनों ने मानवाधिकारों के हनन की एक भयावह तस्वीर को जन्म दिया. शशि थरूर ने आगे कहा, उस समय जिन लोगों ने शासन के खिलाफ आवाज उठाने का साहस किया उन सभी को हिरासत में लिया गया. उनको यातनाएं झेलनी पड़ी.
शशि थरूर ने नसबंदी अभियान का जिक्र करते हुए कहा, आगे कहा गया, दरअसल, “अनुशासन” और “व्यवस्था” की चाहत अक्सर क्रूरता में तब्दील हो जाती थी. इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी के चलाए गए जबरन नसबंदी अभियान थे, जो गरीब और ग्रामीण इलाकों में केंद्रित थे, जहां मनमाने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए जबरदस्ती और हिंसा का इस्तेमाल किया जाता था. दिल्ली जैसे शहरी केंद्रों में निर्ममता से की गई झुग्गी-झोपड़ियों को ढहाने की कार्रवाई ने हजारों लोगों को बेघर कर दिया और उनके कल्याण की कोई चिंता नहीं की गई.
कांग्रेस सांसद ने कहा, बाद में इन कामों को दुर्भाग्यपूर्ण अत्याचार कहकर कम करके आंका गया. कुछ लोग तो कह सकते हैं कि आपातकाल के बाद एक पल के लिए राजनीति में व्यवस्था आ गई थी. लेकिन ये हिंसा उस सिस्टम का नतीजा थी जहां बिना रोक-टोक की ताकत तानाशाही बन चुकी थी. भले ही उस व्यवस्था ने थोड़ी शांति दी, लेकिन इसके लिए हमें अपनी लोकतांत्रिक आत्मा की भारी कीमत चुकानी पड़ी.